While searching for something, i found this peice of writing. I dont remember when did I write this, I can only make out why I wrote this...here it is..
जब दिमाग बाकी सारे ज़रियों पर हावी हों जाता है,तब इंसान सिवाय अपने बनाये हुए दायरों के बीच भटकने के अलावा कुछ और नही कर पाता है, और इसीलिए उसे कभी कबार जीवन की सबसे जियादा अहम् चीज़ की नजदीकी का भी एहसास नही हों पाता , और अगर कोई वो बताना चाहे तब भी , इंसान उस बात से सहमति नही जुटा पाता, क्योंकि उसे ख़ुदके साथ कभी अच्छा होने की उम्मीद ही नही होती.और अंत यही की वह ख़ुद ही के मन के अन्धकार के भवर मैं खो जाता है। पर सत्य तोह फिर भी उतना ही सत्य रहता है जितना की वह बिन बताये अपने वजूद मैं सत्य होता है .जताने से , कहने से, या छुपाने से किसी भी सत्य मैं कोई बदलाव नही आता.
जब दिमाग बाकी सारे ज़रियों पर हावी हों जाता है,तब इंसान सिवाय अपने बनाये हुए दायरों के बीच भटकने के अलावा कुछ और नही कर पाता है, और इसीलिए उसे कभी कबार जीवन की सबसे जियादा अहम् चीज़ की नजदीकी का भी एहसास नही हों पाता , और अगर कोई वो बताना चाहे तब भी , इंसान उस बात से सहमति नही जुटा पाता, क्योंकि उसे ख़ुदके साथ कभी अच्छा होने की उम्मीद ही नही होती.और अंत यही की वह ख़ुद ही के मन के अन्धकार के भवर मैं खो जाता है। पर सत्य तोह फिर भी उतना ही सत्य रहता है जितना की वह बिन बताये अपने वजूद मैं सत्य होता है .जताने से , कहने से, या छुपाने से किसी भी सत्य मैं कोई बदलाव नही आता.
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