Sunday, October 26, 2008

(57) ऐसा ही हु मैं !!

ग़म को सहता नही, सहलाता हूँ मैं
तभी शायद पत्थर दिल, कहलाता हूँ मैं !
देकर के ताने , खुश हो जाते हैं लोग
चुप रहकर के , दिल उनके बहलाता हूँ मैं !

मेरे बे -असर बर्ताव से , वोह नाराज़ होतें हें
ख़ुद ही कड़वा कहकर , ख़ुद ही रोते हेँ !
मैं मनाऊं ऐसे मौके, कम ही होतें हें
इल्जाम लग जाने के डर से, रह जाता हूँ मैं !


दर्द नही होता मुझको, जस्बातों से काम नहीं
और भी बढ़कर लगायें हें, येही बस इल्जाम नहीं !
शिकवा भी मैं कैसे करूँ, गैरों का ये काम नहीं
अपनो ने ऊँगली ऊठाई है, मोह मैं बेह जाता हूँ मैं !

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